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नागपूर समाचार : संस्कृत को संचार का माध्यम बनाने की आवश्यकता – आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत

नागपूर समाचार : शुक्रवार को वारंगा स्थित कविकुलगुरु कालिदास संस्कृत विश्वविद्यालय (केकेएसयू) में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक परिसर का उद्घाटन और बालकों एवं बालिकाओं के छात्रावासों का शिलान्यास किया गया। इस कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत और महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस भी उपस्थित थे, जिन्होंने भारत की सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत के पुनरुद्धार में संस्कृत के महत्व पर प्रकाश डाला।

सभा को संबोधित करते हुए मोहन भागवत ने कहा कि संस्कृत को केवल विद्वानों के अध्ययन तक सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि इसे जीवंत, बोलचाल की भाषा बनना चाहिए।

भागवत ने कहा, “संस्कृत को शैक्षणिक और कर्मकांडीय उपयोग से आगे बढ़कर दैनिक संचार का माध्यम बनने की आवश्यकता है। भाषा समाज के भाव की अभिव्यक्ति है और संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं का मूल है। भारत को सही मायने में समझने के लिए संस्कृत को समझना आवश्यक है।”

उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारत की आत्मनिर्भरता केवल भौतिक शक्ति में ही नहीं, बल्कि बौद्धिक और सांस्कृतिक शक्ति में भी निहित है। उन्होंने कहा, “भारत पहली से सोलहवीं शताब्दी तक विश्वगुरु था। हमारा पतन तभी हुआ जब हम अपने सत्व, अपने सच्चे सार को भूल गए। जहाँ सत्व है, वहाँ शक्ति, ऊर्जा और समृद्धि है।” उन्होंने आगे कहा कि संस्कृत उस सार को पुनः खोजने में केंद्रीय भूमिका निभाती है।

भागवत ने विश्वविद्यालय के मिशन में राज्य के समर्थन और सार्वजनिक भागीदारी दोनों का आह्वान किया तथा इस बात पर बल दिया कि संस्कृत धीरे-धीरे विश्वविद्यालय के आसपास के क्षेत्र में आम उपयोग की भाषा बन जानी चाहिए।

उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने भागवत की भावनाओं को दोहराते हुए संस्कृत को ज्ञान से भरपूर अंतर्राष्ट्रीय भाषा बताया, जो भारत के प्राचीन ज्ञान की कुंजी है।

“संस्कृत ज्ञान का भंडार है और भारत की प्रगति की कुंजी है। जैन और बौद्ध परंपराएँ भी संस्कृत में संरक्षित हैं, और कई इंडो-यूरोपीय भाषाओं की जड़ें भी इसी में हैं। मुझे पहले संस्कृत न सीख पाने का अफसोस है, क्योंकि मैं विशाल ज्ञान से वंचित रह गया, लेकिन अब मैं इसका अध्ययन करने का प्रयास करूँगा,” फडणवीस ने कहा।

नेताओं ने इस बात पर जोर दिया कि भारत की सभ्यतागत पहचान को संरक्षित रखने तथा यह सुनिश्चित करने के लिए कि देश की बौद्धिक और आध्यात्मिक संपदा विश्व को प्रेरित करती रहे, संस्कृत को पुनर्जीवित करना आवश्यक है।

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