नागपुर समाचार : कलियुगी जीवों का उद्धार करते हुए श्री गुरु नानकदेवजी महाराज केसी राज पहुंचे जहां शहरवासियों ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया। उनके हृदय में संत-महात्माओं के लिये प्रेम व श्रद्धा बहुत थी मगर परमार्थ का सच्चा मार्ग उन्हें ज्ञात नहीं था। गुरुजी शहर के एक बगीचे में स्थित कुएं के पास बैठ गए। नित्यानुसार उस कुएं पर एक साहूकार स्नान करने आया व स्नान करने के पश्चात गुरुजी को देखकर माथा टेका। घर जाकर भोजन तैयार करवाया अपनी स्त्री व पुत्री के साथ भोजन के थाल लेकर गुरुजी के पास आया। विभिन्न व्यंजन देखकर गुरुजी का शिष्य भाई मरदाना बहुत खुश हुआ व पेट भर भोजन खाकर तृप्त हुआ। गुरुजी ने भी भोजन ग्रहण किया व कुछ सीत प्रसाद थाल में ही छोड़ दिया।
शाहूकार एवं उसकी स्त्री ने जैसे ही वह सीत प्रसाद चखा उनके कपाट खुल गए, उन्हें तीनों लोकों का ज्ञान हो गया व गुरुजी से सत्मार्ग का उपदेश पूछने लगे। गुरु महाराज प्रसन्न होकर उन दोनों को रिद्धी-सिद्धीयां बख्क्षी। उस दिन से वह शाहूकार साधू बन गया व धर्म की कीरत करने लगा तथा गरीबों से ब्याज लेना छोड़ दिया। दिन-रात एकाग्रचित्त होकर परमात्मा के नाम का सिमरन करने लगा।
जिस तरह चंदन के वन की खूशबू हवा द्वारा बहुत दूर तक फैल जाती है ठीक उसी प्रकार गुरु महाराज की कीर्ती सारे नगर में फैल गयी। शहर के जीव रोग, दुख इत्यादि की निवृत्ति हेतु गुरुजी के पास आने लगे। दयालु गुरुजी ने कृपा कर उनके सारे मानसिक व शारीरिक रोग दूर कर आरोग्यता प्रदान की व सतिनाम के नाम एवं सत्व्यवहार से जोड़ा। केसी राज का राजा बहुत धर्मी था मगर पिछले जन्म के किसी बुरे कर्म के कारण उसे औलाद नहीं हो रही थी। औलाद की कमी उसे बहुत बुरी तरह खलती थी। उसकी धर्मपत्नी रानी पद्मावती बहुत ही सुशील, दयावान व गुणवान थी तथा दासियां भी रानी का दुख महसूस करती थीं। दासियों ने जाकर रानी को बताया कि हमारे राज्य में एक बहुत ही महान और दयालु महात्मा आए हैं, आप जाकर उनसे पुत्र प्राप्ती का वर मांगो। यह बात रानी ने राजा से कही व दोनों आपस में सलाह-मशविरा कर गुरुजी के समक्ष आ पहुंचे व गुरुजी के चरणों में माथा टेककर बैठ गए।
उस समय गुरुजी परमात्मा की भक्ति में लीन थे तथा इस शब्द का उच्चारण कर रहे थे- कीता कहा करे मनि मानु।। देवणहारे कै हथि दानु // (श्री गुरु ग्रंथ साहिब – पृ. सं. 25) अर्थात परमेश्वर द्वारा रचित जीव अपने मन में मान (अहंकार) क्यों कर रहा है जबकि सारी सुख सुविधाएं इत्यादि पदार्थ देना प्रभु के हाथ में ही है। शब्द उच्चारण के पश्चात गुरुजी के समक्ष राजा ने विनंती की कि हे महात्मा! आप परमात्मा के रुप हैं, राज-भाग होने के पश्चात भी पुत्र न होने के कारण मैं बहुत दुखी हूं, अतः आप मुझ पर कृपा करो। साथ ही साथ रानी भी गुरुजी से यही प्रार्थना करने लगी, रानी की आंखों में आंसू आ गए।
राजा व रानी की श्रद्धा-भक्ति और पुत्र की भूख देखकर दयालु सतिगुरु ने उनपर कृपा दृष्टि कर उन्हें दो लौंग व एक इलायची दी और वचन फरमाया हे राजन! करतार के नाम का सिमरन करना, गरीबों को विभिन्न सहूलियतें प्रदान करना, धर्मशाला व सड़कें बनवाओ, वृक्ष लगवाओ, किसी को तंग नहीं करना, दुखी जीवों पर दया करना। तुम्हारे घर दो पुत्र और एक पुत्री होगी। पुत्रों को पाकर अहंकार न करना, अहंकार सारी बीमारियों का मूल है, पिछले जनम में अहंकार करने के कारण ही तुम्हारी किस्मत में पुत्र नहीं था, मगर परमेश्वर ने अब तुम्हारे माथे के लेख बदल दिये हैं। पांच बार कहो सतिनामु! सति करतार! अतः आज्ञा मानकर राजा-रानी ने पांच बार सिमरन किया।
राजा-रानी गुरुजी को बड़े आदर-सत्कार के साथ राजमहल ले गए। हजारों साधुओं व गरीब दीन-दुखियों को भोजन कराया तथा सात दिन वहां सत्संग कोर्तन चलता रहा। गुरुजी वहां से जाने लगे तो राजा ने व्याकुल होकर विनंती की हे दाता ! आप हमें फिर कब दर्शन देंगे ? राजा का प्रेम देखकर गुरुजी कहते हैं- हे राजन! जब भी हमारे दर्शन करने की अभिलाषा हो तो कड़ाह प्रसाद तैयार करवाके अरदास करना हमारे दर्शन हो जाएंगे। यह वचन फरमाकर गुरुजी ने उस नगर को छोड़ा। नगर की सीमा तक सारी साध-संगत प्रेमपूर्वक गुरुजी के साथ आई और सभी के मुख में यही नाम था – धन गुरु नानक देव जी! ‘सतिनामु! सति करतार !’
गुरु नानकदेवजी का जनम विक्रम संवत् 1526 कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णमासी के दिन तलवंडी गांव (पाकिस्तान) में हुआ। ऐसे महान गुरु श्री गुरु नानक देवजी की 554 वीं जयंती पर शत् शत् नमन।